बसंत पंचमी से शुरू होती है ब्रज की होली, 40 दिनों तक चलता है रंगोत्सव : इंजी० रोहित कुमार दिवाकर

बसंत पंचमी से शुरू होती है ब्रज की होली, 40 दिनों तक चलता है रंगोत्सव : इंजी० रोहित कुमार दिवाकर

हाथरस। ब्रज क्षेत्र में होली एक दिन का त्यौहार नहीं है और न ही रंग गुलाल, मस्ती और पकवानों के त्यौहार मात्र को होली कहते हैं। मथुरा वृंदावन में होली का पर्व ऐसा मनाया जाता है कि देश और दुनिया में इसका रंग छा जाता है। जिसका शुभारंभ बसंत पंचमी के शुभ दिन से ही शुरू हो जाता है। इस दिन ब्रज में होली का ढाड़ा गाड़े जाते हैं और इस तरह ब्रज में होली महोत्सव की शुरुआत हो जाती है। अब ब्रज के मंदिरों में सुबह सुबह भगवान श्री कृष्ण को अबीर रंग लगाने की परंपरा भी शुरू कर दी गई है। वैसे तो ब्रज में होली का त्यौहार 15 दिन से अधिक दिन तक चलता है। इसलिए होली से पूर्व ही ब्रज भूमि में चारों तरफ होली की रौनक देखने को मिल जाती है ब्रज की इस होली का आनंद लेने के लिए देश - विदेश से बड़ी संख्या में श्रद्धालु हर साल यहां आते हैं। ब्रज क्षेत्र में कई दिनों तक चलने वाले होली पर्व में कई प्रकार की होली खेली जाती हैं। जिसमेें मुख्य रूप से बरसाना की लड्डू होली, बरसाना की लठमार होली, रंगभरनी एकादशी और वृंदावन प्रक्रिमा, गोकुल की छड़ीमार होली, फालौन में जलती होलिका से पंडा के निकलने की लीला, दाऊजी का हुरंगा और चरकुला नृत्य मुखराई, रंगजी मंदिर में होली उत्सव वृंदावन आदि सम्मलित हैं। मथुरा के फालैन गांव में दशकों से चली आ रही परंपरा का अनुसरण करते हुए हर वर्ष एक व्यक्ति जिसे पंडा कहा जाता है, होली की आग की लपटों को पार करता है, वह वसंत पंचमी के दिन से ही गांव के मंदिर में जमीन पर ही सोता है। वृंदावन का बांके बिहारी मंदिर जिसमें होली की असल रौनक देखने को मिलती है। सप्ताह भर पहले ही यहां की संकरी गलियां लाल, पीले, हरे, गुलाबी रंगों में रंग जाती हैं और होली है, होली है का शोरगुल व्यक्ति के भीतर एक अलग उत्साह पैदा करता है। बांके बिहारी मंदिर मंदिर से कुछ ही दूरी पर स्थित है, इस्कॉन मंदिर। चूंकि यह मंदिर सफेद टाइल्स का बनाया गया है, इसलिए इस मंदिर में रंग, गुलाल की होली के बजाय फूलों की होली खेली जाती है। होली का सबसे अच्छा अनुभव प्रेम मन्दिर में होता है। वृंदावन में प्रेम मन्दिर की स्थापना 2001 में हुई थी। यह वृंदावन का सबसे मशहूर और अद्भुत मंदिर है। हालांकि मंदिर के अंदर होली खेलने पर पाबंदी है, लेकिन मंदिर के बाहर आपको हजारों की संख्या में सैलानी होली खेलते दिख जायेंगे। ऐसे में आप भी इस जश्न में शामिल हो सकते हैं। गोविंद देव जी मंदिर वृंदावन का सबसे प्राचीन मंदिर है। सात मंजिला यह मंदिर पूरी तरह पत्थर का बना है। लेकिन मुगल आक्रमण के बाद से इस मंदिर में केवल तीन ही इमारत बची हैं। यहां भी होली का त्यौहार बड़ी ही धूमधाम से मनाया जाता है। वृंदावन के ब्रज में गुलाल कुंड भी एक दिलचस्प जगह है। यह गोवर्धन पहाड़ी के पास एक छोटी और सुंदर सी झील है। यहां के रहने वाले लोग कृष्ण लीला नाटक में अभिनय करते हैं और पर्यटकों के सामने होली के दृश्यों को दर्शाते हैं। यहां के मंदिरों में बाहर से लाए गए कैमिकलों से बने गुलाल, रंगों से होली नहीं खेली जाती बल्कि यहां फूलों तथा कसेर आदि जैसे प्राकृतिक पदार्थों का उपयोग करके रंग बनाकर होली में प्रयोग किए जाते हैं। मूरत भगवान श्री कृष्ण का जन्म स्थान है, और वृंदावन वह स्थान है जहां वे बचपन में बड़े हुए थे। जब श्री कृष्ण छोटे थे तो उन्होंने अपनी मां को राधा ( उनकी सहेली ) के गोरा होने के बारे में बताया, जबकि श्री कृष्ण स्वयं काले रंग के थे। उनकी मां ( यशोदा ) ने उन्हें चंचल तरीके से राधा को रंगों से रंगने का सुझाव दिया। ब्लिट्ज से श्री कृष्ण अपने गांव नंदगांव से राधा और अन्य गोपियों को रंग लगाने के लिए ब्लरटाना ( राधा का गांव ) जाते थे। वहां की गोपियां उन्हें लाठियों से पीटती थीं । यहीं से लाठमार होली की परंपरा विकसित हुई। इस परंपरा में कुछ महिलाएं पुरुषों को लठ से पीटती हैं और पुरुष ढाल से उस लठ का बचाव करते हैं। प्रायः मथुरा से 28 किमी० दूर स्थित दाऊजी मंदिर में यह ( लाठमार होली ) खेली जाती है। ब्रज की होली का आनंद, रंगों में ही नहीं बल्कि साहित्य में भी इस होली का वर्णन मिलता है। होली को सूरदास, रसखान जैसे महान कवियों ने पदों में उतारा है, तो स्वामी हरिदास के पदों का गायन कर सेवायत आराध्य बांके बिहारी जी को आज भी हर दिन रिझा रहे हैं। ब्रज की होली देश के तमाम हिस्सों से अप्रतिम सौंदर्य के दिव्यधाम की अनुभूति का आनंद देने वाली है। ब्रज संस्कृति के ज्ञाताओं की माने तो यहां गोप - गोपिकाएं, गाय - बछड़े, पशु - पक्षी इस प्रेम के उत्सव में मूर्तिमान विग्रह का रूप ले लेते हैं, जो राधा - कृष्ण, नंद - यशोदा के प्रेम भक्ति का सबसे अनूठा प्रमाण है। टेसू के फूलों से बने रंग से भरी पिचकारी यहां की पहचान है। राधाकृष्ण की होली को याद करते हुए सूरदास, रसखान से लेकर अनेक कवि हुए। उन्होंने काव्य में राधाकृष्ण को प्रेरणास्त्रोत मानकर भावनाओं का पदों के रूप में सृजन किया। मंदिरों में बरसते रंगों में सराबोर हुरियारों की टोलियां घमासान मचाते हुए गगन मंडल को रंगीन करती हैं। दिनभर रंगों की होली बाद शाम को होली के गीत गाए जाते हैं।

महाकवि सूरदास कालिंदा नदी के किनारे भगवान श्री कृष्ण द्वारा खेली गई होली के भाव को व्यक्त करते हैं। उसमें रंगों के साथ वे एक दूसरे पर रसभरी गालियां शामिल हैं। कवियों की रचना में लिखी, होली में कृष्ण के हाथ में सोने की पिचकारी है और वे मिश्रित रंग गुलाल उड़ाते दिखते हैं।

होरी खेलत यमुदा के तट कुंजनि तट बनवारी, 

दूत सखियन की मंडल जोरे श्रीबृषभान दुलारी।

होड़ा - होड़ी होत परस्पर देत है आनंद गाली,

भरे गुलाल कुम - कुम केसर कर कंचन पिचकारी।

महाकवि रसखान होली में सायंकाल का वर्णन करते हुए ब्रजगोपियों और श्रीकृष्ण के होली खेलने का चित्रण करते हैं और विशाखा सखि के वर्णन में लिखते हैं कि जैसे ही फागुन ला पूरे ब्रजमंडल में धूम मच गई है और एक भी गोपी नई - नवेली वधु ही क्यों न हो, सांझ के समय भी रंग गुलाल का जादू छाया हुआ है। फागुन लाग्यो सखी जब तै तब तैं ब्रजमंडल धूम मच्यों है, नारि नवेली बचे नहीं

एक विसेख यहै सबै प्रेम अच्यो है।

महाकवि भारतेंद्र हरिश्चंद्र होली का वर्णन इस तरह करते हैं -

चहूं ओर कहत सब होरी हो हो होरी..., पिचकारी छूटत उड़त रंग की झोरी।

मधि ढाढे सुंदर स्याम साथ लै गौरी..., बाढ़ी छवि देखत रंग रंगीली जोरी।

गुन गाय होत हरिश्चंद्र दास बलिहारी, वृंदावन खेलत फाग बढ़ी छवि भारी।

मंडल ब्यूरो अनिल चौधरी