समाज का दर्पण " सिनेमा "

सिनेमा एक कला है, इसमें गीत होते हैं, शब्द होते हैं, कैमरे का फिल्मांकन होता है, इसके जरिए कहानी कही जाती है। सिनेमा सिर्फ मनोरंजन नहीं, इससे कला और जीवन का सत्य जुड़ा है।

समाज का दर्पण " सिनेमा "

सिनेमा एक कला है, इसमें गीत होते हैं, शब्द होते हैं, कैमरे का फिल्मांकन होता है, इसके जरिए कहानी कही जाती है। सिनेमा सिर्फ मनोरंजन नहीं, इससे कला और जीवन का सत्य जुड़ा है।

सिनेमा की अगर हम बात करें तो यह विज्ञान की एक अद्भुत देन है। भारतीय सिनेमा ने आज बहुत बड़ा रूप ले लिया भारतीय सिनेमा को विज्ञान के उपायों में एक बहुत ही सुंदर उपहार माना गया है इसलिए आज भारतीय सिनेमा बहुत ही लोकप्रिय है। हमारे सामाजिक जीवन में सिनेमा ने इतना महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त किया है, कि उसके बिना सामाजिक जो जीवन है अधूरा सा लगता है। सिनेमा देखना लोगों के जीवन की  दैनिक क्रिया की तरह हो गया है। जैसे शाम को सिनेमा घर के सामने एकत्र होकर सभी लोग सीरियल, धार्मिक नाटक, फिल्म एक साथ देखते हैं। उससे सिनेमा की उपयोगिता का अनुमान लगाया जा सकता है। वैसे तो सिनेमा का मुख्य कार्य मनोरंजन है, लेकिन इसके अतिरिक्त भी जीवन में सिनेमा का बहुत महत्व है। भारत में फिल्म जगत में उद्योग का भी दर्जा प्राप्त है। सिनेमा इंसान के पैसे कमाने का एक बहुत अच्छा साधन है।

भारतीय फिल्म उद्योग विश्व में सबसे अधिक फिल्मों के निर्माता के रूप में भी जाना जाता है। भारतीय सेना में भी कई भाषाओं में फिल्में बनाई जाती हैं।यहां हिंदी तेलुगू तमिल भोजपुरी आदि भाषा है। आजादी के बाद अधिकांश फिल्मों में हमारे नागरिकों तथा देश को एक राष्ट्र के रूप में पहचान दी है। भारतीय सिनेमा के द्वारा हमें भारतीयों के सामाजिक आर्थिक और राजनीतिक जीवन और समय के साथ इसमें हो रहे बदलावों को समझने में सहायता मिली है। सिनेमा केवल 3 घंटे का मनोरंजन नहीं है, बल्कि एक ऐसी भावना है, जिसे सामान्य रूप से लोग अपने साथ समय चले जाते हैं ।और उसके साथ जुड़े रहना चाहते हैं। भारतीय सिनेमा मनोरंजन का एक बहुत अच्छा सस्ता और बढ़िया साधन है। इसमें मानव के जीवन के नाटक और हमारे समाज में हो रही बुराई अच्छाइयों का दृश्य देखने को मिलता है। आज हमारे भारतीय सिनेमा की सबसे महत्वपूर्ण देन हिंदी फिल्म है। भारत की आजादी के पश्चात सिनेमा जगत में देशभक्ति की जो भी फिल्में थी, उन्होंने लोगों के दिलों में देशभक्ति की भावना को जलाकर रखा हुआ है। आज भी जब हम पुराने जितने भी देश भक्ति गाने सुनते हैं। उनसे हमारा मन देशभक्ति के लिए ओतप्रोत हो जाता है। भारतीय सिनेमा ने अपनी फिल्मों के माध्यम से ही देश की सभ्यता और संस्कृति को अभी तक जिंदा कर रखा है। आज के समय में मानव अपने जीवन में इतना व्यस्त हो गया कि उसकी आवश्यकता भी बहुत बढ़ गई हैं। व्यस्तता के कारण मनुष्य के पास मनोरंजन के लिए बिल्कुल भी समय नहीं है। सभी लोग जानते हैं कि मनुष्य बिना मनोरंजन के साथ खुद को शारीरिक और मानसिक रूप से बिल्कुल स्वस्थ नहीं रख सकता। सिनेमा मनुष्य की बहुत जरूरी आवश्यकता की पूर्ति करता है। मानव जीवन के तनाव और उदास पन को दूर करके दिन भर की थकान मिटा देता है।

भारतीय सिनेमा अपनी प्रारंभिक अवस्था से ही भारतीय समाज का आईना रहा है। भारतीय सिनेमा में  शुरुआती दौर में मूक फिल्मों की भरमार रही। भले ही उन्हें मूक फिल्में कहा जाता था,तब भी वह पूरी तरह मूक नहीं होती थी। उनके साथ संगीत और डांस भी चलता रहता था। जब पर्दे पर उनको प्रदर्शित किया जाता था ।तब भी उनके साथ संगीत,वादों जैसे सारंगी,तबला,हारमोनियम और वायलिन कर संगीत बजाया जाता जाता था। जिसमें पहली फिल्म दादासाहेब फालके नहीं वर्ष 1913 में पहली स्वदेशी मूक फिल्म राजा हरिश्चंद्र का निर्माण किया। दादासाहेब फालके को भारतीय सिनेमा के जनक के रूप में भी जाना जाता है।

इसके कुछ दशक बाद बोलती एवं रंगीन फिल्मों का युग आरंभ हो चुका था ।जिसमें पहली बोलती फिल्म आलम आरा थी। जिसका निर्माण 1931 में आर्देशिर ईरानी के निर्देशन में किया गया।

इसके बाद भारत में युद्ध रंजीत फिल्में भी देखने को मिली उस दौर की फिल्मों में झलकता भी है कि उस दौर में जो फिल्में बनी थी जैसे धरती के लाल दो आंखें बारह हाथ इनमें स्वतंत्रता की प्राप्ति की व्यग्रता दिखाई देती है। इस दौर में दुखांत प्रेम कथाएं और कल्पित ऐतिहासिक कहानियां जैसे चंद्रलेखा, लैला मजनू, सिकंदर, चित्रलेखा पर भी फिल्मों का निर्माण किया गया। हालांकि भारत अपनी स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात बढ़ती समस्याओं का सामना कर रहा था, फिर भी फिल्म उद्योग दिन दूनी रात चौगुनी गति से बढ़ रहा था।

इसी के चलते नए युग का भी उदय हो चुका था। जहां दक्षिण और उत्तर भारत में जो भारी संख्या में फिल्म निर्माण हो रहा था उसे नियमित करने के लिए 1950 के दशक में केंद्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड की स्थापना की गई।

अब भारतीय सिनेमा अपने युवाओं पर पहुंचने लगा था। इस युग में फिल्मी सितारों का भी उदय हुआ, जिसमें हिंदी सिनेमा की त्रिमूर्ति दिलीप कुमार, देवानंद और राज कपूर थे। इसके बाद भारत में स्वर्ण युग आया एंग्री यंग मैन वाला युग आया। रंक से राजा बनने की कहानियों का यह सफल सूत्र पर्दे पर लोगों को उनके अपने सपने को जीने का अवसर प्रदान करता था। अमिताभ बच्चन इस प्रकार की अधिकांश फिल्मों के प्रतिनिधि बन गए और इस दौर को अमिताभ बच्चन का युग कहा जा सकता है। भारतीय सिनेमा का स्वरूप तेजी से बदलने लगा और रोमांटिक सिनेमा का दौरा आया मानो सामाजिक विषय पर बनने वाली फिल्मों की बाढ़ सी आ गई थी। रोमांटिक और पारिवारिक कहानियों को भारी मात्रा में लोग देखना पसंद कर रहे थे। इस युग में तीन प्रमुख अभिनेता थे ।अनिल कपूर ,जैकी श्रॉफ और गोविंदा। लेकिन अब बॉलीवुड में फिल्में कुछ ज्यादा रोमांटिक ढंग से बनाई जा रही हैं और कॉमेडी को डबलमीनिंग करके दिखाया जाता है। कहीं ना कहीं बॉलीवुड अब अपने पथ से भटक गया है। एक समय था, जब भारतीय सिनेमा में बॉलीवुड काफी प्रचलन में था। साउथ सिनेमा जिसे टॉलीवुड कहा जाता है। उसे कोई पूछता तक नहीं था। उसका मजाक बनाया जाता था। वहीं नेशनल अवॉर्ड बॉलीवुड स्टार को मिल रहे थे। लेकिन अब टॉलीवुड, बॉलीवुड से आगे निकल रहा है। 2017 से 2022 तक जो भी सुपर मूवी है, वह साउथ सिनेमा से ही आई है। जैसे बाहुबली 2, रोबोट 2.2, पुष्पा ,KGF।

इसके बहुत से कारण है, जिसकी वजह से आज बॉलीवुड, टॉलीवुड से पिछड़ता जा रहा है।

बॉलीवुड ने फिल्म के कंटेंट का स्वरूप ही बदल दिया है। बॉलीवुड भारतीय संस्कृति और सभ्यता से दूर जा रहा है। महिला सशक्तिकरण को एक नए ही रूप में दिखाया जाता है। जहां महिलाएं सिगरेट पीती हुई, शराब पीती हुई दिखाई जाती है।

वही साउथ सिनेमा का कंटेंट रीजनल है। संस्कृति और समाज से जुड़ा हुआ है। वह लोकल मुद्दे उठाते हैं, बेरोजगारी का मुद्दा उठाते हैं। वह सिस्टम के खिलाफ जंग लड़ते हैं। शासन के खिलाफ जंग लड़ते हैं। और समाज के वास्तविक बदलाव को दिखाते हैं। जो समाज में आ सकते हैं।

दूसरी बात जिससे बॉलीवुड पीछे जा रहा है वह है नेपोटिज्म इसमें हर एक अभिनेता अपने बेटे को अभिनेता बनाना चाहता है चाहे उसमें टैलेंट हो या नहीं। साउथ सिनेमा में भी नेपोटिज्म है पर वह अपने दम पर हैं जैसे चिरंजीव के बेटे हैं रामचरण, लेकिन उसका अपना टैलेंट है अपनी एक्टिंग है। रजनीकांत का दामाद है, धनुष लेकिन वह रजनीकांत के दामाद के लिए नहीं अपनी एक्टिंग के लिए याद किया जाता है। साउथ सिनेमा में और भी अन्य एक्टर हैं, जो अपनी एक्टिंग के लिए जाने जाते हैं महेश बाबू, अल्लू अर्जुन, प्रभास जोसेफ, विजय, सूर्या, यश आदि।

बॉलीवुड में आजकल फिल्म की कहानी पर ज्यादा फोकस नहीं किया जा रहा है। बॉलीवुड अपनी संस्कृति और सामाजिक मुद्दों को छोड़कर डबल मीनिंग कॉमेडी और ज्यादातर रोमांटिक फिल्में बना रहा है वही साउथ सिनेमा फिल्म की कहानी पर फोकस करके वीएफएक्स और सामाजिक मुद्दे एक्शन को ध्यान में रखकर फिल्मों को बना रहा है। टॉलीवुड में KGF, बाहुबली ,RRR, पुष्पा हाल फिलहाल की फिल्मों ने साउथ सिनेमा को एक नया रूप दिया है।

बॉलीवुड बुरा नहीं है, बॉलीवुड ने भारतीय सिनेमा को बढ़ावा दिया है। लेकिन अब बॉलीवुड कहीं ना कहीं अपनी रहा से भटकता जा रहा है। जहां बॉलीवुड ने शुरुआती दौर में धमाल मचा रखा था, अब वह पीछे हटा जा रहा है ।

कुछ अध्ययनों से पता चलता है कि सामान्य लोगों की मानसिकता पर फिल्मों का बहुत गहरा प्रभाव पड़ता है। लोग फिल्म के नायक और नायिका के चरित्र के साथ इस प्रकार सहानुभूति दर्शाते हैं कि मानो वे वास्तविक हो।

भारतीय सिनेमा मनोरंजन का एक बहुत अच्छा और सस्ता बढ़िया साधन है। इसने मानव के जीवन के नाटक और हमारे समाज में हो रही बुराई अच्छाइयों का दृश्य देखने को मिलता है। भारतीय सिनेमा के द्वारा हमें भारत के कल्चर को जानने में मदद मिलती है।

लेखन श्रेय

प्रियांशी