श्री जिन सहस्र नाम विधान में उत्तम आकिन्चन धर्म अंगीकार करने को उमड़े जैन श्रद्धालु
संवाददाता आशीष चंद्रमौलि
दसलक्षण धर्म के नवें दिन अजितनाथ सभागार मे मुनि श्री विशुभ्र सागर महाराज के सानिध्य मे जैन श्रद्धालुओ द्वारा जिनेंद्र भगवान की आराधना की गयी और उत्तम आकिन्चन धर्म अंगीकार किया गया। इस दौरान बडी संख्या में जैन श्रद्धालु उमड पडे।
पंडित पारस जैन शास्त्री के निर्देशन में जैन श्रद्धालुओ द्वारा जिनेंद्र भगवान की प्रतिमा का नाचते गाते भक्ति भाव से अभिषेक किया गया।सौधर्म इंद्र बनने का सौभाग्य विपिन कुमार राजीव जैन, प्रदुमन जैन को प्राप्त हुआ।पूजन सामग्री राजेश जैन कल्लू खाद वालो द्वारा दी गयी।शास्त्र भेंट का सौभाग्य सौधर्म इंद्राणी को प्राप्त हुआ।विधान के मध्य देव शास्त्र गुरु पूजन,अजितनाथ भगवान पूजन व दसलक्षण पूजन की गयी और मंडल पर 100 अर्घ्य समर्पित किये गए।
शाम को आचार्य भक्ति और इसके बाद संगीतकार पूजा जैन द्वारा संगीतमय आरती कराई गयी।रात्रि में निर्ग्रंथ पाठशाला और प्राइड स्कूल के बच्चों द्वारा सुंदर सांस्कृतिक कार्यक्रमों की प्रस्तुति की गयी, जिसे दर्शको द्वारा काफी पसंद किया गया। कार्यक्रम मे सुभाष जैन, राजकुमार जैन, प्रमोद जैन हंस कुमार जैन, वरदान जैन, सुधीर जैन,राकेश जैन, आशीष जैन, अंकुर जैन, मुजेश जैन आदि उपस्थित रहे।
*धर्म क्षेत्रे ;अनुमात्र भी मेरा कुछ नहीं, यही आकिंचन्य धर्म: मुनि श्री विशुभ्र सागर*
चातुर्मास कर रहे दिगम्बर जैन मुनि श्री विशुभ्र सागर महाराज ने अजितनाथ सभागार मे विधान के मध्य धर्मसभा में सम्बोधन करते हुए कहा कि , क्षमा, मार्दव आर्जव शौच, सत्य, संयम, तप त्याग आकिंचन्य और ब्रह्मचर्य ये दस धर्म हैं। क्षमा से ही धर्म प्रारम्भ होता है। अहिंसा सर्व धर्मों में प्रधान धर्म हैं। धर्म के मर्म को समझना है, तो पक्षातीत होना पड़ेगा। यथार्थ वस्तु स्वरूप को समझना है, तो पंथातीत होना पड़ेगा। परम सुख, शांति चाहिए, ती अन्तर्मुखी दृष्टि बनाओ। बाहृय पदार्थों से दृष्टि हटाकर निज की ओर आओ।पर- द्रव्य, पर-पदार्थ किंचित् भाव भी मेरा नहीं। आयु- अणु स्वतन्त्र है। कण-कण भिन्न है। परमाणु मात्र भी मेरा कुछ नहीं, ऐसी परमोत्कृष्ट अवस्था का होना' आकिंचन्य धर्म' है।
मैं किसी का नहीं, मेरा कोई नहीं। मैं पर से पूर्ण स्वतंत्र एक आत्माचैतन्य अन्य हूँ। शरीर तुमसे भिन्न अचेतन, अधुचि, नश्वर-पदार्थ है। जो कुछ भी है, यही छूटने वाला है। सब संयोग हैं, रंगभाव नहीं है।भव बदलने के पहले, भाव बदल लेना। भाव के अनुसार ही, भव मिलते हैं।भावों को सँभालो, भविष्य बदल जायेगा। व्यक्ति न कुछ साथ लाया था, न कुछ साथ ले जायेगा। जितना-जितना संग्रह करोगे, उतना उतना कष्ट बढ़ेगा। संग्रह में सुख नहीं, सम्पत्ति में शांति नहीं। जोड़ने में आनन्द नहीं ,बल्कि छोड़ने में आनन्द है। जिससे अशांति हो, दुख हो, कष्ट हो, परिणाम विकृत हो, ऐसे संयोगों को छोड़ दो, पर में राग का पूर्ण विराम यही "आकिंचन्य धर्म महान्।कहा कि, त्याग के अहं का भी जहाँ विराम हो जाय, वहीं से प्रारम्भ होता है' आकिंचन्य-भाव'।