कफन की जेब भी खाली नहीं है ये बद-हाली है खुश-हाली नहीं है.!

कफन की जेब भी खाली नहीं है ये बद-हाली है खुश-हाली नहीं है.!

सुधार के नाम पर ऐसा बिगाड़ न हो कि एक बड़ा तबका सड़क के हाशिए पर खड़ा कर दिया जाए..!

रिपोर्ट-निरज गुप्ता

औराई भदोही।लंबे समय से रोजगार शिक्षा और स्वास्थ्य के संकटों के बीच पैकेट बंद खाद्य पदार्थों को वस्तु एवं सेवा उत्पाद कर के दायरे में लाए जाने से आम जनता पर आर्थिक बोझ बढ़ना तय है! आमतौर पर महंगाई बढ़ने का सबसे पहला असर स्वास्थ्य और पोषण पर पड़ता है! जेब पर भार बढ़ते ही लोग सबसे पहले खान पान की गुणवत्ता से समझौता करने के लिए मजबूर हो जाते हैं!खुदरा बाजार के उत्पादों को कर के दायरे में लाने के बाद घरेलू व छोटे उद्यमों पर नियामकीय दबदबा बढ़ना भी तय है जो इनकी मुश्किलें बढ़ाएगा। लंबे समय से लोक कल्याणकारी सरकारें बाजार की मांग पर आधारित सुधार की दरकार का समाधान जनता की जेब में ही खोज रही हैं! सुधार के नाम पर जनता की जेब से पैसे वसूलने की होड़ मची है! जीएसटी के नए ढांचे से जनता सीधे अपनी कमाई में कटौती सी महसूस कर रही है!किसी ने सही कहा हैं..कफन की जेब भी खाली नहीं है ये बद-हाली है खुश-हाली नहीं है
कुछ साल पहले तक कांग्रेस की अगुआई वाली सरकार थी और आज भाजपा की अगुआई वाली सरकार!विचारधारा के स्तर पर ध्रुवीय राजनीतिक बदलाव के बाद आज अगर कुछ नहीं बदला तो वह है वस्तु एवं सेवा उत्पाद कर जीएसटी को लेकर मुख्य राजनीतिक दलों की भावना! विचारधारात्मक रूप से दो सरकारों के बीच यह भावना तभी कायम रह सकती है जब वह बाजार की बड़ी जरूरत हो!बाजार आधारित व्यवस्था में उससे जुड़ी सुधार की सड़क पर चलना सरकार की मजबूरी है यह तो समझा जा सकता है! यहीं पर एक समझ यह भी बनती है कि वह सड़क ऐसी हो जिस पर हर कोई अपनी राह बना सके!सुधार के नाम पर ऐसा बिगाड़ न हो कि एक बड़ा तबका सड़क के हाशिए पर खड़ा कर दिया जाए।