बुंदेलखण्ड के "पचनदा" पर है पाँच नदियों का संगम
माधौगढ़ ( जालौन ) बुंदेलखण्ड का प्रवेश द्वार कहा जाने वाला जनपद जालौन अद्भुत और अनूठा है। इस जनपद के माधौगढ़ तहसील के रामपुरा विकासखण्ड के ऐतिहासिक स्थल जगम्मनपुर की सीमा में जब हम प्रवेश करते हैं तो हमें दुनिया में ऐसा कहीं भी स्थान नहीं है जो यहाँ यमुना के तट पर देखने को मिलता है। यह स्थान है " पचनदा " अर्थात यहाँ पर पाँच नदियों का संगम होता है। इस स्थान पर चंबल , क्वारी , सिंध और पहूज नदियाँ यमुना नदी में समाहित होकर कल - कल छल - छल करती हुईं अपना जीवन साकार करतीं हैं।हर साल पचनदा पर कार्तिक पूर्णिमा के दिन पाँच दिवसीय धार्मिक मेला का आयोजन किया जाता है। यही वह स्थान है जहाँ वन संप्रदाय के आध्यात्मिक गुरु मुकुंद वन महाराज ने 16 वीं शताब्दी में अपना आश्रम बनाया था। शताब्दी के उत्तरार्ध में यहाँ पर रामचरितमानस के रचयिता महात्मा तुलसीदास इस अद्भुत महापुरुष से मिलने स्वयं यहाँ पधारे थे। इस पचनदा तीर्थ क्षेत्र में हर साल कार्तिक पूर्णिमा के लक्खी मेला में हमारे देश की सांस्कृतिक एकता के दर्शन होते हैं।
पचनदा या पचनदे के विषय में विभिन्न जानकार और इतिहास की किताबें बतातीं हैं कि पचनदा जालौन जनपद में एक ऐसा स्थान है जो दुनिया भर में अनूठा है। यहाँ स्थित “ पचनदा ” पर पांच नदियों चंबल , सिंध , क्वारी और पहूज नदियों का यमुना से संगम होता है । यह भौगोलिक के साथ -साथ धार्मिक और सांस्कृतिक दृष्टिकोण से भी बेहद महत्वपूर्ण क्षेत्र है। जालौन जिले के उरई मुख्यालय से 65 किलोमीटर उत्तर - पश्चिम में तथा इटावा से 55 किलोमीटर दक्षिण - पूर्व एवं औरैया से 45 किलोमीटर पश्चिम - दक्षिण प्राकृतिक सौन्दर्यता से परिपूर्ण यह अद्भुत स्थल पचनदा अपनी भौगोलिक समृद्धि , ऐतिहासिकता और पौराणिकता के लिए प्रसिद्ध रमणीक स्थल है । विभिन्न ग्रन्थों व पुराणों में पंचनद स्थल का वर्णन है लेकिन दुर्गम वनों के बीच स्थित होने के कारण तथा सुगमता के अभाव में यह स्थान वह प्रसिद्धि नहीं पा पाया जो इसे मिलनी चाहिए थी। यहाँ यमुना नदी में चंबल , सिंध, कुवांरी और पहूज नदियाँ अपना अस्तित्व विलीन कर यमुनामयी हो जाती हैं। यमुना हो जाने के सौभाग्य जिन पाँच नदियों को मिला है वे नदियाँ सौभाग्यशालिनी हैं।
पचनदा स्थान तीन जनपद जालौन , इटावा और औरैया की भागौलिक सीमा भी बनाता है। वहीं मध्य प्रदेश के भिंड जिले का थोड़ा - सा भूभाग भी इस संगम का हिस्सेदार है । पंचनद संगम के आग्नेय दिशा तट पर बना प्राचीन मठ वर्तमान में सिद्ध संत श्री मुकुंद वन (बाबा साहब महाराज) की तपोस्थली के रूप में विख्यात है। विभिन्न प्रमाणों के आधार पर श्री मुकुंदवन वन संप्रदाय के नागा साधु थे। वह अपनी पीढ़ी के 19 वें महंत थे और वह पंचनद मठ पर तपस्या करते थे। उनकी कीर्ति सुनकर रामचरितमानस के रचयिता गोस्वामी तुलसीदास विक्रमी संवत 1660 अर्थात सन् 1603 में पंचनद पर पधारे और दोनों संतो का मिलन हुआ। इसके बाद दोनों संत गुसाई जी के आग्रह पर जगम्मनपुर के राजा उदोतशाह के यहाँ जगम्मनपुर पहुँचे और वहाँ बनने जा रहे किले की आधारशिला रखी। इसके बाद दोनों संतों ने राजा को भगवान शालिग्राम , दाहिनावर्ती शंख , एकमुखी रुद्राक्ष भेंट किया जो आज भी जगम्मनपुर राजमहल में सुरक्षित एवं पूजित है । इसके अतिरिक्त अनेकानेक जनश्रुतियों और किवदंतियों के जानकार भी अपनी - अपनी जानकारियाँ इस ऐतिहासिक स्थान के विषय में देते रहते हैं.....।"
पचनदा का महत्व सिर्फ इतना ही नहीं श्रीमद् देवी भागवत पुराण के पंचम स्कंध के अध्याय दो मॆ श्लोक क्रमांक 18 से 22 तक पंचनद का आख्यान आया है जिसमें महिषासुर के पिता रम्भ तथा चाचा करम्भ ने पुत्र प्राप्ति के लिए पंचनद पर आकर तपस्या की । करम्भ ने पंचनद के पवित्र जल में बैठकर अनेक वर्ष तक तप किया तो रम्भ ने दूध वाले वृक्ष के नीचे पंचाग्नि का सेवन किया । इंद्र ने ग्राह्य (मगरमच्छ) का रूप धारण कर तपस्यारत करम्भ का वध कर दिया। द्वापर युग में महाभारत युद्ध के दौरान पंचनदा के निवासियों ने दुर्योधन की सेना का पक्ष लिया था। महाभारत ग्रंथ में भी पंचनदा का उल्लेख है।
महाभारत युद्ध समाप्ति के बाद पांडू पुत्र नकुल ने पंचनद क्षेत्र पर आक्रमण कर यहाँ के निवासियों पर विजय प्राप्त की थी। महाभारत वन पर्व में पंचनद को तीर्थ क्षेत्र होने की मान्यता सिद्ध होती है। विष्णु पुराण में भी पंचनद का विवरण मिलता है जिसमें भगवान श्री कृष्ण के स्वर्गारोहण व द्वारका के समुद्र में डूब जाने के उपरान्त अर्जुन द्वारा द्वारका वासियों को पंचनद क्षेत्र में बसाए जाने का उल्लेख है। अन्य पुराणों एवं धर्म ग्रंथों से प्रमाणित होता है कि पंचनद पर स्थित सिद्ध आश्रम एक दो हजार वर्ष पुराना नहीं अपितु वैदिक काल का तपोस्थल है । अथर्ववेद के रचयिता महर्षि अथर्ववन ने पंचनद के तट पर अथर्ववेद की रचना की । महर्षि अथर्ववन वंश की पुत्री वाटिका के साथ भगवान श्रीकृष्ण द्वैपायन (व्यास जी) का विवाह हुआ माना जाता है जिनसे भगवान शुकदेव जी की उत्पत्ति हुई। कुरु राजा धृष्टराष्ट्र व गंगापुत्र भीष्म की सहायता से कृष्ण द्वैपायन व्यास जी ने पंचनद पर एक विराट यज्ञ एवं धर्म सभा का आयोजन किया था । महर्षि अथर्ववन के काल से ही पंचनद स्थित आश्रम पर आज भी वन संप्रदाय के ऋषि निवास करते हैं।
एक जनश्रुति के अनुसार संवत 1636 के आसपास भाद्रपद की अंधेरी रात में तुलसीदास जी कंजौसा से गुजर रहे थे उस समय नदियाँ पूरे उफान पर थी। आश्रम देख उन्होंने प्यासे होने की आवाज लगाई और पानी पिलाने का आग्रह किया। कहा जाता है कि तुलसीदास जी की आवाज सुनकर मुकुंदवन से कमंडल में पानी लेकर यमुना की तेज धार पर चलना शुरू कर दिया और पानी पिलाकर गोस्वामी तुलसीदास जी को तृप्त कराया।
इसके बाद वह गोस्वामी तुलसीदास को अपने आश्रम ले आए। आश्रम में कई दिन तुलसीदास जी रुके तब बाबा मुकुंदवन ने तुलसीदास जी को जगम्मनपुर रियासत के राजा से मिलवाया और तुलसीदास ने जगम्मनपुर किले के शालिगराम के मंदिर में शालिगराम जी की मूर्ति स्वयं स्थापित की थी तथा उन्होंने राजा रूप सहाय को एक मुखी रुद्राक्ष तथा दक्षिणावर्ती शंख भेंट स्वरूप दिया था जो लंबे समय तक किले में सुरक्षित रहा। तुलसीदास जी के जाने के बाद से कंजौसा गाँव में बाबा साहब के मंदिर पर कार्तिक पूर्णिमा पर लक्खी मेला लगना प्रारंभ हो गया जो अनवरत पाँच दिनों तक चलता रहता है। इस मेले में जालौन जिले के साथ ही सीमावर्ती जनपदों औरैया, इटावा ,भिंड ,ग्वालियर कानपुर देहात के अलावा प्रदेश और मध्यप्रदेश के श्रद्धालु भी भारी संख्या में आते हैं।
मुंकुंद वन बाबा साहब के मंदिर के ठीक सामने नदियों के पार इटावा जनपद में कालेश्वर का मंदिर है जहाँ श्रद्धालु बाबा साहब के दर्शन करने भी जाते हैं।
पंचनद संगम तट पर इटावा की सीमा में स्थित विराट मंदिर में प्राचीन शिव विग्रह है। शिव महापुराण के अनुसार भारत के 108 शिव विग्रहों में पंचनद पर गिरीश्वर महादेव पूजित हैं । द्वापर में भगवान श्री कृष्ण द्वारा कालिया नाग को समुद्र जाने की आज्ञा देने पर गोकुल से समुद्र जाने के रास्ते में कालिया नाग द्वारा दीर्घकाल तक पंचनद धाम पर रुककर भगवान शिव जी की पूजा अर्चना की थी। इसी स्थान को गिरीश्वर महादेव फिर कालीश्वर और कालांतर में कालेश्वर के नाम से जाना जाने लगा। पंचनद के कालेश्वर महादेव के मंदिर के आसपास आज भी साँप का जहर उतारने वाली वनस्पति बहुतायत मात्रा में उपलब्ध है, जिसे सर्प पकड़ने वाले नाथ संप्रदाय के साधु पहचान कर उखाड़ ले जाते हैं ।
पचनदा क्षेत्र के संदर्भ में प्रचलित जनश्रुतियों व घटनाओं में कहीं - कहीं ऐतिहासिकता है तो कहीं-कहीं कल्पनामिश्रित किवदंतियों का भी सहारा लिया गया है। जो भी हो पौराणिक मान्यता व भौगोलिक दृष्टि से समृद्ध यह पचनदा क्षेत्र अत्यंत उपयोगी है। डाल्फिन मछलियों के संवर्द्धन की यहाँ असीम संभावनाएँ विद्यमान हैं।
पचनदा के सीमावर्ती गाँवों जगम्मनपुर , गुढा , चंदावली, भिटौरा , जूहीखा , ततारपुर, गूंज, हुसेपुरा , कंजौसा , बिठौली आदि गाँवों में महीने भर जश्न का महौल रहता है।
इस पाँच नदियों के संगम क्षेत्र पचनदा को यदि धार्मिक पर्यटन स्थल बनाया जाय तो बुंदेलखण्ड को और भी गौरवशाली बनाने में यह अनूठा पचनदा क्षेत्र अपनी अत्यंत महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है।