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प्रयागराज। 45 दिवसीय महाकुंभ मेले के चौथे दिन श्रद्धालुओं ने त्रिवेणी संगम में पवित्र डुबकी लगाई। इस साल दुनिया के सबसे बड़े धार्मिक समागम में अब तक 6 करोड़ से ज़्यादा श्रद्धालु शामिल हो चुके हैं। अनुमान है कि तीसरे शाही स्नान के दिन यह संख्या 10 करोड़ से अधिक हो सकती है।
नागा साधुओं का पहला शाही स्नान: परंपरा और इतिहास
महाकुंभ में सबसे पहले शाही स्नान का अधिकार नागा साधुओं को दिया जाता है। इसके बाद आम श्रद्धालु और बाकी संत स्नान करते हैं। लेकिन क्या आपने सोचा है कि आखिर नागा साधु ही क्यों सबसे पहले शाही स्नान करते हैं? इसका इतिहास 265 साल पुराना है और इसके पीछे कई रोचक कहानियां हैं।
खूनी संघर्ष और परंपरा की शुरुआत
यदुनाथ सरकार अपनी पुस्तक ‘द हिस्ट्री ऑफ दशनामी नागा संन्यासीज’ में लिखते हैं कि कुंभ में पहले स्नान को लेकर विवादों का इतिहास रहा है। 1760 के हरिद्वार कुंभ में नागा साधुओं और वैरागी संतों के बीच पहले स्नान को लेकर संघर्ष हुआ, जिसमें सैकड़ों वैरागी मारे गए। 1789 के नासिक कुंभ में भी ऐसी ही स्थिति बनी, जिसके बाद वैरागी संतों ने पेशवा दरबार में शिकायत की।
1801 में पेशवा कोर्ट ने कुंभ में नागा साधुओं और वैरागी संतों के लिए अलग-अलग घाटों की व्यवस्था की। हरिद्वार और प्रयागराज में भी अंग्रेजों के शासन के दौरान नियम बनाए गए, जिसमें नागा साधुओं को पहले स्नान का अधिकार दिया गया। तब से यह परंपरा निरंतर चली आ रही है।
धार्मिक और ऐतिहासिक महत्व
धार्मिक मान्यताओं के अनुसार, समुद्र मंथन के दौरान अमृत कलश की रक्षा का दायित्व नागा साधुओं को दिया गया था। भोलेनाथ के तपस्वी अनुयायी होने के नाते, नागा साधुओं को पहले स्नान का अधिकारी माना गया। माना जाता है कि उनका स्नान आध्यात्मिक ऊर्जा का केंद्र है।
एक अन्य मान्यता के मुताबिक, आदि शंकराचार्य ने धर्म की रक्षा के लिए नागा साधुओं की टोली बनाई थी। उन्होंने नागाओं को सबसे पहले स्नान करने का अधिकार दिया, जिसे शंकराचार्य के अनुयायी आज भी निभाते हैं।
‘संस्कृति का महाकुंभ’
मकर संक्रांति के दिन 14 जनवरी को 3.5 करोड़ से अधिक श्रद्धालुओं ने संगम में पवित्र स्नान किया। इस दौरान 10 देशों का 21 सदस्यीय दल भी संगम में डुबकी लगाने पहुंचा। महाकुंभ में 16 जनवरी से 24 फरवरी तक ‘संस्कृति का महाकुंभ’ का आयोजन होगा। गंगा पंडाल में देश के नामचीन कलाकार भारतीय संस्कृति और कला की झलक प्रस्तुत करेंगे।
महाकुंभ न केवल आस्था का संगम है, बल्कि यह भारतीय संस्कृति और परंपराओं का जीवंत प्रतीक भी है, जो पूरी दुनिया को अपनी ओर आकर्षित करता है।
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