बाह्य जगत् में चित्त का लगना , भोग और चिंता ही अशांति, कष्ट व मौत के कारक : जैन मुनि

बाह्य जगत् में चित्त का लगना , भोग और चिंता ही अशांति, कष्ट व मौत के कारक : जैन मुनि

संवाददाता आशीष चंद्रमौली


बडौत | चित्त का बाह्य जगत् में लगना ही अशांति का कारण बताते हुए जैन संत मुनिश्री विशुद्ध सागर ने धर्मसभा में कहा कि, जितना चित्त बाह्य में जाएगा, उतना ही आनन्द भंग होगा। बाह्य में अशांति ही है, अन्तर्मुखी दृष्टि ही सर्वश्रेष्ठ है।आत्मिक गुणों के चिन्तन से ही सुख-शांति व आनन्द सम्भव है। कहा कि, आत्मजागृति के अभाव में उत्कर्ष सम्भव नहीं।

   खचाखच भरे ऋषभ सभागार में जैन संत ने आह्वान किया,चिंता मत करो, चिंतन करो , क्योंकि चिंता सम्पूर्ण रोगों की जड़ है। चिंता करने से ज्ञान का क्षय होता है, चिंता से बुद्धि क्षय, चिंता से शारीरिक- बल नष्ट होता है। चिंता करने से सुन्दरता नष्ट होती है।चिंता से पाचन-तंत्र कमजोर होता है, शरीर दुर्बल हो जाता है और फिर चिंता करने वाला शीघ्र ही मृत्यु को प्राप्त करता है। सज्जनों को शीघ्र ही चिंता छोड़कर चिंतन करना चाहिए।
चिंतनशील ही आत्म- विकास को प्राप्त करता है।

अथाह ज्ञान के सागर मुनि श्री विशुद्ध सागर ने कहा कि,भोग ही दुःख को प्रदान करते हैं, जबकि योग मुक्ति का साधन है। एक-एक इन्द्रिय के भोग भी जीवों को मृत्यु के कारण बन जाते हैं, फिर जो पाँचों इंद्रियों से भोग भोगें, उसकी पीड़ा का क्या कहना ? रसना वश मछली जाल में फंसती है ,पक्षी दाना चुगने के लोभ में जाल में फंसता है ,भ्रमर सुगंध लेने आता है और फिर पुष्प में ही मरण प्राप्त करता है। नाग बीन की मधुर तान सुनकर सपेरे के वश में होकर परतंत्र हो जाता है। वहीं मनुष्य पांचों इन्द्रियों से भोग भोगकर कष्ट को प्राप्त होता है।सभा का संचालन पं श्रेयांस जैन ने किया।सभा मे प्रवीण जैन, अतुल जैन, सुनील जैन, मनोज जैन,राकेश सभासद,सुरेश, प्रवक्ता वरदान जैन,अशोक जैन,दिनेश जैन, राजेश जैन आदि उपस्थित थे।