नगर पालिका और पंचायतों में बढ़त बनाना भाजपा के लिए बड़ी चुनौती

नगर पालिका परिषदों और नगर पंचायतों में भाजपा के लिए बढ़त बनाना बड़ी चुनौती होगी, क्योंकि ग्रामीण क्षेत्रों से जुड़े इन निकायों में सपा समर्थित सदस्यों की अच्छी खासी संख्या है।

नगर पालिका और पंचायतों में बढ़त बनाना भाजपा के लिए बड़ी चुनौती

ग्रामीण क्षेत्रों से जुड़े इन निकायों में सपा समर्थित सदस्यों की अच्छी खासी संख्या है।        

अवनीश शर्मा 

लखनऊ
 नगर पालिका परिषदों और नगर पंचायतों में भाजपा के लिए बढ़त बनाना बड़ी चुनौती होगी, क्योंकि ग्रामीण क्षेत्रों से जुड़े इन निकायों में सपा समर्थित सदस्यों की अच्छी खासी संख्या है।

लोकसभा चुनाव के ठीक पहले हो रहे नगर निकाय चुनाव भाजपा और सपा दोनों के लिए काफी अहम हैं। नगर पालिका परिषदों और नगर पंचायतों में भाजपा के लिए बढ़त बनाना बड़ी चुनौती होगी, क्योंकि ग्रामीण क्षेत्रों से जुड़े इन निकायों में सपा समर्थित सदस्यों की अच्छी खासी संख्या है। ऐसी सीटों पर कब्जा करने के लिए भाजपा को कड़ी मशक्कत करनी पड़ सकती है।

दरअसल 2017 में हुए विधानसभा चुनाव में भाजपा को प्रचंड जीत मिली थी। इसके बाद हुए निकाय चुनाव में भाजपा ने 16 में 14 नगर निगमों में महापौर की सीटें जीती थीं, लेकिन बहुत से नगर पालिका परिषदों और नगर पंचायतों में अध्यक्ष और वार्डों में सपा, बसपा और कांग्रेस व निर्दलियों ने भाजपा के प्रचंड जीत की रफ्तार को रोका था। वहीं, इस बार निकायों की संख्या भी बढ़ गई है। नए में से ज्यादातर निकाय सपा के प्रभाव वाले क्षेत्र के माने जा रहे हैं। ऐसे में परिस्थितियां तब के मुकाबले इस बार ज्यादा जटिल नजर आ रही हैं।


बीते तीन निकाय चुनाव के नतीजों पर नजर डालें तो पता चलता है कि शहरी इलाकों यानी नगर निगमों में भले ही भाजपा सबसे आगे रही हो, लेकिन, कस्बाई और ग्रामीण इलाकों से जुड़ी नगर पालिका परिषदों तथा नगर पंचायतों में उसे सपा-बसपा एवं निर्दलीयों से तगड़ी चुनौती मिलती रही है। लोकसभा एवं विधानसभा में जीत के विस्तार के साथ भाजपा का नगर पालिका परिषदों में तो प्रदर्शन सुधरा, लेकिन ज्यादातर नगर पंचायतें अब भी उसकी पहुंच से दूर हैं।

सपा की स्थिति में सुधार
वह भी तब जब 2017 के मुकाबले राजनीतिक समीकरण काफी बदल चुके हैं। खासतौर से मुख्य विपक्षी दल सपा के पक्ष में परिस्थितियां भी 2017 के मुकाबले काफी बदली दिख रही हैं। तब सपा के विधायकों की संख्या 47 ही थी। इस बार इनकी संख्या 111 हो चुकी है। यही नहीं, सपा की जमीन मजबूत करने में पार्टी संस्थापक स्व. मुलायम सिंह यादव के कंधे से कंधा मिलाकर काम करने वाले शिवपाल सिंह यादव भी अब अखिलेश यादव के साथ हैं। पिछली बार दोनों एक-दूसरे के विरोध में थे। साफ है कि चाचा-भतीजे के कारण राजनीतिक परिस्थितियां पहले की तुलना में सपा के पक्ष में सुधरी दिख रही है।

इस बार सपा के वोटों में 2017 के निकाय चुनाव जैसा बंटवारा होने की आशंका फिलहाल कम ही है। साथ ही 2017 के मुकाबले 2022 में ज्यादा संख्या में विधायकों की जीत भी उसके पक्ष में समीकरणों को मजबूत दिखा रही है। कारण, ये विधायक अपनी राजनीतिक जमीन मजबूत दिखाने के लिए अपने क्षेत्रों के नगरीय निकायों में पार्टी उम्मीदवारों को जीत दिलाने के लिए अपनी पूरी ताकत लगाएंगे। ऊपर से पश्चिमी यूपी और पूर्वी यूपी के कई इलाके ऐसे हैं जहां 2019 के लोकसभा चुनाव और 2022 के विधानसभा चुनाव में सपा ने भाजपा को कड़ी चुनौती दी है।

बेहतर जनसुविधाएं देने का संदेश
हालांकि वर्तमान सरकार ने कुछ नगर पालिका परिषदों को नगर निगमों में तब्दील कर, कुछ नगर पंचायतों को नगर पालिका परिषद बनाकर तथा नगर पंचायतों की संख्या में इजाफा करके लोगों को बेहतर जनसुविधाएं देने की गारंटी देने का संदेश दिया। यह भी संदेश देने की कोशिश की है कि वह ग्रामीण इलाकों को भी नगरों जैसी सुविधा देना चाहती है । इसके जरिये उसने इन नगरीय निकायों के रहने वालों को राजनीतिक रूप से भी भाजपा के साथ लामबंद करने का प्रयास किया है । पर, अभी तक इन निकायों के चुनाव के नतीजों से संकेत यही मिल रहे हैं कि सब कुछ होने के बावजूद मतदान नजदीक आते-आते स्थानीय समीकरणों की भूमिका बढ़ जाएगी । जिसमें राजनीतिक परिस्थितियां तथा स्थानीय विधायकों की भूमिका निर्णायक होगी ।