हॉकी वर्ल्ड कप: संघर्ष के बाद शिखर पर पहुँचे खिलाड़ियों की कहानी

भारत में साधारण परिवारों से खिलाड़ियों के निकलने का सिलसिला नया तो नहीं है पर पिछले कुछ समय से ऐसे खिलाड़ियों के निकलने की दर में एकदम से इज़ाफ़ा हो गया है. इससे हॉकी का खेल भी अछूता नहीं है.

हॉकी वर्ल्ड कप: संघर्ष के बाद शिखर पर पहुँचे खिलाड़ियों की कहानी

दरअसल साधारण परिवारों में जन्म लेने वाले खिलाड़ियों में कुछ कर गुज़रने का जज़्बा ही उन्हें इस मुक़ाम तक पहुंचाता है.

कई बार युवा अपने परिवार के आर्थिक हालात बदलने के लिए खेलों में आते हैं. कई ऐसे खिलाड़ी हैं, जिन्हें सही दिशा दिखाए जाने के बाद उनके भाग्य का उदय हो गया.

ओडिशा के भुवनेश्वर और राउरकेला में शुरू हो रहे हॉकी विश्व कप में भाग लेने वाली भारतीय टीम में कुछ खिलाड़ी ऐसे हैं जो आए तो ग़रीब या साधारण परिवारों से हैं, पर अपने जज़्बे की वजह से उन्होंने नई ऊंचाइयां हासिल की हैं.

चलिए इनमें से कुछ खिलाड़ियों की बात करते हैं.

गोल पर चट्टान की तरह डटने वाले श्रीजेश

पिछले कुछ सालों में भारतीय टीम ने जो भी उपलब्धि हासिल की है, उसमें गोलकीपर पीआर श्रीजेश की भूमिका अहम रही है. पर हॉकी में उनकी इस ज़िम्मेदारी को निभाने के लिए उनके शुरुआती कोच जयवीर सिंह को इसका श्रेय देना चाहिए.

श्रीजेश सेंट जोसफ़ हाई स्कूल की पढ़ाई के दौरान स्प्रिंटर (तेज धावक) के तौर पर ट्रेनिंग लिया करते थे. बाद में वह लॉन्ग जंप करने के साथ वॉलीबाल भी खेलते थे.

लेकिन तिरुवनंतपुरम के जीवी राजा स्पोर्ट्स स्कूल में जाने पर वहां के हॉकी कोच जयवीर ने उन्हें देखा और हॉकी गोलकीपर बनने की सलाह दी.

उनकी उस सलाह का परिणाम है कि आज श्रीजेश की दुनिया के सर्वश्रेष्ठ गोलकीपरों में गिनती होती है. श्रीजेश 2006 में सीनियर टीम में आ गए थे.

पहली बार वे भारतीय टीम के साथ दक्षिण एशियाई खेलों में भाग लेने गए थे.

तब टीम के नियमित गोलकीपर एड्रियन डिसूजा और भरत छेत्री हुआ करते थे. इस कारण वह लंबे समय तक भारतीय टीम के नियमित गोलकीपर नहीं बन सके.

यह वह दौर था, जब उनका करियर भटक भी सकता था. लेकिन उन्होंने अपना फ़ोकस बनाए रखा जिसकी वजह से 2011 में वे भारतीय टीम के नियमित गोलकीपर बन गए और जल्द ही नंबर-वन गोलकीपर का तमगा भी पा लिया.

वे इस तमगे को एक दशक से भी ज़्यादा समय तक अपने साथ बनाए रखने में सफल रहे हैं.

श्रीजेश के करियर में एक समय ऐसा भी आया, जब लग रहा था कि वह शायद अब आगे नहीं खेल पाएं. पर यह उनके पक्के इरादे का कमाल ही है कि वह भारत को ओलंपिक पदक जिताने में अहम भूमिका निभाते नजर आए हैं.

ये बात 2017 के अजलान शाह हॉकी टूर्नामेंट की है.

ऑस्ट्रेलिया के ख़िलाफ़ मैच में उनके एक फ़ारवर्ड से टकरा जाने पर उनका दाहिना घुटना बुरी तरह से चोटिल हो गया. उनकी जांच के बाद तत्कालीन कोच रोलेंट ओल्टमस ने जब इसकी गंभीरता के बारे में बताया तो उन्हें एक बार तो लगा कि कोच मजाक कर रहे हैं. पर वह जल्द ही चोट की गंभीरता को समझ गए.

इस चोट के बाद यह माना गया कि उनके करियर पर विराम लग गया है. लेकिन श्रीजेश ने फ़िट होने के बाद ज़बरदस्त मेहनत करके दिखा दिया कि उनके लिए कुछ भी असंभव नहीं है.

सही मायनों में चोट इतनी गंभीर थी कि श्रीजेश ने इससे उबरने के बाद कहा था कि 'मैंने ज़िंदगी में दूसरी बार चलना सीखा.'

अब वह भारत को विश्व कप में 47 सालों बाद पोडियम पर चढ़ाने को तैयार हैं.

नीलम संजीप हैं गुदड़ी के लाल

डिफ़ेडर की भूमिका निभाने वाले नीलम संजीप सेस ओडीशा के सुंदरगढ़ ज़िले के कादोबाहाल गांव में जिस तरह के हालात में रहते थे, वहां से किसी के इस मुक़ाम तक पहुंचने वाले के जज़्बे को सलाम करना बनता है.

वह जिस कच्चे मकान में रहते थे, उसमें न तो पानी का कनेक्शन था और न ही गैस का. सुंदरगढ़ इलाके में हॉकी बहुत ही लोकप्रिय खेल है, इसलिए नीलम ने भी इस खेल को अपना लिया.

वैसे उनके सामने फ़ुटबॉल खेलने का भी विकल्प था, पर हॉकी को लेकर मन में लगाव होने की वजह से वह इसे खेलने लगे.

नीलम ने पहले हॉकी के नियमों को समझा और फिर नामी कोचों से प्रशिक्षण लेना तय किया.

नीलम के करियर में पूर्व भारतीय खिलाड़ी बीरेंद्र सिंह ने अहम भूमिका निभाई. उनसे हॉकी के गुर सीखने के बाद नीलम ने इसे गंभीरता से लेना शुरू किया.

उनकी अगुआई में ओडिशा की अंडर-21 टीम पुणे में हुए दूसरे 'खेलो इंडिया' में चैंपियन बनी जिससे वो सुर्खियों में आए.

वह पहली बार 2016 में भारतीय टीम में स्थान बनाने में सफल हुए और अब तक 30 मैचों में भारत का प्रतिनिधित्व कर चुके हैं.