जेल में अवसाद: कैदियों को मिल रही ‘नई आज़ादी’?

जेल में अवसाद: कैदियों को मिल रही ‘नई आज़ादी’?

चित्रकूट ब्यूरो: जेलों में सुधार का दौर चल रहा है, लेकिन लगता है कि मानसिक स्वास्थ्य की कोई जगह नहीं बची। चित्रकूट जिला कारागार में बंद अपहरण के दोषी अरविंद कुमार (26) ने अवसाद से परेशान होकर फांसी लगा ली। शायद उसने सोचा होगा कि सज़ा तो किसी तरह काट लेंगे, लेकिन अवसाद का क्या करें?

"सुधार गृह" में सुधार किसका हो रहा है?

अरविंद कुमार को न्यायालय ने पांच साल की सजा सुनाई थी और 20 जनवरी को वह जेल पहुंचा था। जेल आने के बाद से ही वह गुमसुम रहने लगा। जेल अधीक्षक शशांक पांडेय ने कहा, "हमने समझाने की बहुत कोशिश की, लेकिन वह हीन भावना से ग्रसित था।" अब सवाल उठता है कि समझाने का तरीका कैसा था? क्या उसे यह बताया गया कि जेल में रहने के फायदे कितने हैं—फ्री खाना, रहने की जगह, और सरकारी सुरक्षा?

परिजनों की बेरुखी या व्यवस्था की नाकामी?

बंदी के परिजन भी उससे कोई संपर्क नहीं कर रहे थे। जेल अधिकारियों के अनुसार, "उसके मानसिक स्वास्थ्य को लेकर गंभीर चर्चा हुई थी," लेकिन वह अवसाद से उबर नहीं सका। मानो जेल में कैदियों के लिए मनोरंजन केंद्र हो, जहां काउंसलिंग से सारी परेशानियां खत्म हो जाती हैं!

न्यायपालिका से सवाल: सजा अवसाद की भी थी?

अब यह विचारणीय है कि आखिर सजा किस चीज़ की थी—अपराध की या अवसाद की? अगर मानसिक स्वास्थ्य की भी सजा हो रही है, तो क्या कैदियों को जेल में मनोवैज्ञानिक मदद मिल रही है?

प्रशासन का 'चिर-परिचित' रवैया

घटना के बाद प्रशासन ने फौरन "जांच के आदेश" जारी कर दिए। यानी कुछ दिन कागजों की उथल-पुथल होगी, रिपोर्ट बनेगी, और फिर मामला ठंडे बस्ते में चला जाएगा। मानसिक स्वास्थ्य के लिए क्या उपाय किए जाएंगे? शायद अगले किसी कैदी की आत्महत्या के बाद इस पर फिर विचार किया जाएगा!

निष्कर्ष:

आखिर कब तक जेलों में कैदी मानसिक अवसाद का शिकार होते रहेंगे? क्या जेल प्रशासन सिर्फ सजा काटने की जगह है, या फिर वहां सुधार और मानसिक स्वास्थ्य पर भी ध्यान दिया जाएगा? या फिर हम यह मान लें कि "जो जेल गया, उसे सिर्फ अपराध की नहीं, अवसाद की भी सजा भुगतनी होगी!"