क्या अमेरिका और चीन ख़तरनाक संघर्ष के करीब पहुँच रहे हैं?

अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया और ब्रिटेन के बीच इस सप्ताह हुए परमाणु पनडुब्बी समझौते को लेकर चीन ने कड़ी प्रतिक्रिया दी है और इसे ख़तरनाक कदम कहा है.

क्या अमेरिका और चीन ख़तरनाक संघर्ष के करीब पहुँच रहे हैं?

सोमवार को सेन डिएगो में इन तीनों देशों ने आधिकारिक तौर पर घोषणा की कि उनके बीच ऑकस परमाणु पनडुब्बी समझौता हुआ है जिसके तहत नई और बेहद उन्नत तकनीक से लैस पनडुब्बियों का नया बेड़ा बनाया जाएगा.

ये एक तरह का रक्षा और सुरक्षा सहयोग है जिसका उद्देश्य एशिया प्रशांत इलाक़े में चीन की बढ़ती सामरिक ताक़त से निपटना है.

तीन पश्चिमी देशों के इस समझौते को लेकर चीन ने कहा है कि "ये ख़तरनाक रास्ते पर आगे बढ़ने जैसा है".

चीन का कहना है कि "ये अंतरराष्ट्रीय समुदाय की चिंताओं को दरकिनार करना है" और ऐसा कर "ये देश नए हथियारों और परमाणु हथियारों की दौड़ को बढ़ा रहे हैं."

इससे पहले चीन ने उस वक़्त भी पश्चिमी देशों को लेकर कड़ी प्रतिक्रिया दी थी जब अमेरिकी संसद की स्पीकर नैंसी पेलोसी ने ताइवान का दौरा किया था.

चीन ताइवान को अपना हिस्सा मानता है, वहीं ताइवान खुद के अलग देश मानता है.

चीन दुनिया की सबसे अधिक आबादी वाला देश है, जिसके पास दुनिया की सबसे बड़ी जल सेना और थल सेना भी है. उसका कहना है कि ऐसा लगता है कि इस समझौते की मदद से अमेरिका और उसके सहयोगी देश उसका दायरा "सीमित" करना चाहते हैं.

तीख़ी बयानबाज़ी

चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग ने हाल में चीन के सैन्य बजट में बढ़ोतरी की घोषणा की थी और कहा था कि आने वाले वक्त में राष्ट्रीय सुरक्षा उनके लिए सबसे अहम चिंता का विषय होगा.

शी जिनपिंग के इस बयान के मद्देनज़र ब्रिटेन के प्रधानमंत्री ऋषि सुनक ने भी हाल में ही बयान दिया था कि आने वाला वक़्त मुश्किलों भरा हो सकता है. उन्होंने इसी सप्ताह कहा था कि आने वाला दशक ख़तरनाक हो सकता है और हमें बढ़ती सुरक्षा चिंताओं को देखते हुए तैयारी करनी चाहिए.

लेकिन स्थिति इस स्तर तक पहुंची कैसे? और क्या एशिया प्रशांत के इलाक़े में चीन, अमेरिका और उसके सहयोगी एक बड़े संघर्ष की तरफ़ क़दम बढ़ा रहे हैं.

चीन को लेकर पश्चिमी मुल्कों का आकलन ग़लत रहा है. सालों तक इन देशों के विदेश मंत्रालयों का अनुमान ये रहा कि आर्थिक उदारीकरण के बाद चीन का समाज खुलेगा और वहां अधिक राजनीतिक स्वतंत्रता भी होगी.

ये माना गया कि जैसे-जैसे बहुराष्ट्रीय कंपनियां चीन में अपने ज्वाइंट प्रोजेक्ट लगाएंगी वहां के हज़ारों लाखों लोगों को रोज़गार का अवसर मिलेगा, उनके जीवन जीने का स्तर बेहतर होगा और इसका एक नतीजा ये होगा कि देश की जनता पर चीनी कम्युनिस्ट पार्टी की पकड़ ढीली पड़ने लगेगी. इससे वहां की मौजूदा व्यवस्था में गणतांत्रिक सुधार आएंगे और वो "नियमों पर आधारित एक वैश्विक वर्ल्ड ऑर्डर" का हिस्सा बन सकेगा.

लेकिन स्पष्ट है कि ऐसा हुआ कुछ भी नहीं हुआ.

लेकिन हां, चीन आर्थिक तौर पर और मज़बूत होता गया और वक़्त के साथ वो ग्लोबल सप्लाई चेन का बेहद अहम हिस्सा बन गया. कई देशों के लिए वो सबसे महत्वपूर्ण व्यापार सहयोगी बन गया.

लेकिन आर्थिक स्तर पर हुई इस प्रगति के साथ वहां न तो गणतंत्र आया और न ही वहां उदारीकरण दिखा, बल्कि चीन ऐसी राह पर निकल पड़ा जिसने जापान, दक्षिण कोरिया और फ़िलिपींस जैसे उसके पड़ोसियों के साथ-साथ अमेरिका को भी सचेत कर दिया.